मरहूम के ईसाले
सवाब के लिये जो खाना बनाते हैं वह खाना ग़रीब के अलावा मालदार लोग भी खा सकते हैं
या नहीं? और जो महमान आते हैं
उन्हें खिलाना चाहिये या नहीं?
जवाब:
मैयत
के नाम पर मैयत वालों की तरफ़ से आम और ख़ास सब लोगो को दावत देकर
खिलाना ना जाईज़ और बुरी बिद्-अत है, क्युंकि शरीअत ने दावत ख़ुशी में रखी है ना कि ग़म में ।
*फ़तावा आलमगीरी:
जिल्द 1, पेज 167
*फ़त्-हुल बारी: जिल्द 2, पेज 142
*तह्तावी + मराक़िल फ़लाह़: जिल्द 1, पेज 617
*दुर्रे मुख़्तार + रद्दुल मोह्तार: जिल्द 2, पेज 240
इमामे अहले सुन्नत
आलाहज़रत मौलाना अहमद रज़ा रहमतुल्लाहि अलैहि फ़रमाते हैं:
मुर्दे का खाना सिर्फ़ फ़ु-क़रा (यानी जो साहिबे निसाब ना हों, उन) के लिये होना चाहिये, आम दावत के तौर पर जो करते हैं ये मना है,
ग़नी (साहिबे निसाब) ना
खाये।
फ़तावा रज़विया:
जिल्द 9, पेज 536
और फ़रमाते हैं:
"मैयत के यहां जो लोग जमा होते हैं, और उनकी दावत की जाती है, ये खाना हर तरह
मना है।
फ़तावा रज़विया: जिल्द 9, पेज 673
और फ़रमाते हैं:
"मैयत की दावत बिरादरी केलिये मना है ।
फ़तावा रज़विया: जिल्द 9, पेज 609
और फ़रमाते हैं:
"तीजे, 10वे, 20वे, 40वे वग़ैरा का खाना मिस्कीनों को दिया जाये, बिरादरी में
बांटना या बिरादरी को इकट्ठा करके खिलाना बे मतलब है
।
फ़तावा रज़विया: जिल्द 9, पेज 667
सदरुश्शरीआ हज़रत
अल्लामा अमजद अली आज़मी रहमतुल्लाहि अलैहि फ़रमाते हैं: "आम
मैयत का खाना सिर्फ़ फ़ु-क़रा (ग़ैर साहिबे निसाब) को खिलायें,
और बिरादरी में अगर कुछ लोग जो साहिबे निसाब ना
हों उनको भी खिला सकते हैं, और अपने रिश्तेदारों में अगर ऐसे लोग हों तो उनको खिलाना औरो से बेह्तर है, और जो साहिबे निसाब हों उनको ना खिलायें, बल्कि ऐसे लोगो को खाना
भी ना चाहिये ।
फ़तावा अमजदिया: जिल्द 1, पेज 337
हज़रत मुफ़्ती
शरीफ़ुल हक़्क़ अमजदी रहमतुल्लाहि अलैहि फ़रमाते हैं: "कुछ जगह येह रिवाज
है कि मैयत के खाने को बिरादरी अपना हक़्क़ समझती है, अगर ना खिलायें तो ऐब लगाते और ताना देते हैं, येह ज़रूर बुरी बिद्-अत है, लैकिन अगर मैयत को सवाब पहुंचाने केलिये खाना पकवाकर ग़रीब मुसलमानों को
खिलायें, तो इसमे हरज नहीं,
येह खाना अगर आम मुसलमानो में से किसी
को सवाब पहुंचाने केलिये है तो मालदारों (साहिबे निसाब लोगो) को खाना मना है, और फ़ु-क़रा (ग़ैर साहिबे निसाब लोगो) को जाइज़, और अगर बुज़ुर्गाने दीन को सवाब पहुंचाने केलिये है तो अमीर
ग़रीब सबको खाना जाईज़ है ।
फ़तावा अमजदिया: जिल्द 1, पेज 337
और इसी लिये जिस सूरत में दावत नाजाईज़ है,
वोह नाजाईज़ ही रहेगी, चाहे मैयत की दावत कही जाये या सिर्फ़ दावत बोलकर खिलायी
जाये, और मना होने की बुनयाद फ़ातिहा नहीं है, कि फ़ुक़रा का खाना अलग फ़ातिहा करने और बाक़ी
लोगो का अलग बग़ैर फ़ातिहा करने से खराबी दूर हो जायेगी ।
मुसलमानों पर
लाज़िम है कि इस ग़लत रिवाज को ख़त्म करें, जिस चीज़ का नाजाईज़ होना साबित हो जाये उसके बा वुजूद अगर उसको करेगा तो
वोह गुनहगार है ।
फ़तावा फ़ैज़ुर्रसूल: जिल्द 1, पेज 657 से 662 तक का ख़ुलासा
आलाहज़रत फ़रमाते
हैं: "तजरिबे की बात है कि जो लोग मैयत के तीजे, 10वे, 20वे, 40वे बरसी वग़ैरा के खाने के तलब-गार और शौक़ीन
रहते हैं उनका दिल मुर्दा हो जाता है, अल्लाह की याद और इबादत केलिये उनके अंदर वोह चुस्ती
नहीं रह जाती, क्युंकि वो अपने
पेट के लुक़्मे केलिये मुसलमान की मौत के इंतेज़ार में रहते हैं, और खाना खाते वक़्त अपनी मौत से बे ख़बर होकर खाने के मज़े
में खोये रहते हैं ।
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